26 April 2025

परशुराम जयंती: भगवान विष्णु के छठे अवतार की आराधना का पावन पर्व

हिंदू धर्म के अनुसार भगवान विष्णु ने जब-जब धरती पर अधर्म और अन्याय का बोलबाला देखा, तब-तब उन्होंने विविध रूपों में अवतार लेकर धर्म की स्थापना की। उन्हीं अवतारों में से एक हैं भगवान परशुराम, जिन्हें श्रीहरि का छठा अवतार माना गया है। हर वर्ष वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को परशुराम जयंती मनाई जाती है। इसी दिन अक्षय तृतीया भी होती है, जिससे इस तिथि का धार्मिक महत्व और भी बढ़ जाता है।

 

कब है परशुराम जयंती 2025?

इस वर्ष परशुराम जयंती 29 अप्रैल को मनाई जाएगी। पंचांग के अनुसार, तृतीया तिथि 29 अप्रैल से शुरू होकर 30 अप्रैल को दोपहर 2 बजकर 12 मिनट तक रहेगी। भगवान परशुराम का जन्म प्रदोष काल के दौरान हुआ था, इसीलिए उनकी जयंती 29 अप्रैल को मनाई जाएगी। 

 

भगवान परशुराम का अवतरण

स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान परशुराम वैशाख शुक्ल तृतीया को रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए थे। इसलिए वैशाख शुक्ल तृतीया पर (जिसे अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है) परशुराम जयंती मनाई जाती है। भगवान परशुराम का जन्म आज से लगभग 8 लाख 75 हजार 7 सौ साल पूर्व त्रेता युग के 19वें भाग में हुआ था।

भगवान परशुराम के जन्मस्थानों के बारे में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं जो भिन्न-भिन्न जगहों को भगवान परशुराम का जन्मस्थान बताते हैं। लेकिन उनमें से ज्यादातर विद्वानों द्वारा मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट जानपाव पर्वत को भगवान परशुराम की जन्मस्थली माना गया है। परशुराम के पिता का नाम महर्षि जमदग्नि था।  

 

अवतार का उद्देश्य

पुराणों के अनुसार, जब क्षत्रिय वर्ग ने अत्याचार और अहंकार की सीमाएं लांघ दीं, तब भगवान परशुराम ने धरती को उनके अत्याचारों से मुक्त करने का संकल्प लिया। उन्होंने इक्कीस बार धरती को क्षत्रियों से मुक्त किया। वे धर्म, न्याय और मर्यादा की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध थे।

 

परशुराम: शास्त्र और शस्त्र दोनों के ज्ञाता

भगवान परशुराम केवल युद्ध के ही नहीं, बल्कि शास्त्रों के भी परम ज्ञाता थे। उन्होंने कई महान योद्धाओं और राजाओं को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी। कहा जाता है कि भीष्म पितामह, कर्ण और द्रोणाचार्य जैसे महायोद्धा उनके ही शिष्य थे।

 

भगवान परशुराम ने अपनी माता का वध क्यों किया था?

इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण में मिलता है। एक दिन परशुराम की माता गंगाजल लेने के लिए गंगा नदी के तट पर गईं। जिस समय रेणुका गंगा से जल भर रही थीं उसी समय गंधर्व मृतिकावत के पुत्र राजा चित्ररथ गंधर्वराज का जलयान वहां रुका। चित्ररथ अपनी अप्सराओं के साथ वहां जल क्रीड़ा करने लगे। रेणुका के दिमाग में विचार आया कि यह लोग स्नान करके चले जाएं तो मैं पूजा और संध्या के लिए स्वच्छ जल लेकर आश्रम को जाऊं। 

इक्ष्वाकु क्षत्रिय वंशी होने के कारण रेणुका के विचारों में स्वच्छंदता थी। उसे भार्गवों के द्वारा निर्मित नीति पंथ का ज्ञान नहीं था। उनके मन में विचार आने लगा कि वह भी राजकुमारी थी और अगर उसका विवाह भी किसी राजकुमार से हुआ होता तो वह भी इसी प्रकार जल क्रीड़ा और अन्य राजकुमारियों की तरह मनोरंजन कर सकती थी। 

मानसिक विकार आ जाने की वजह से रेणुका का चित्त स्थिर नहीं हो पा रहा था। जिससे वो पात्र में जल नहीं भर पाईं। वह देर शाम बिना जल लिए ही गीले वस्त्रों के साथ आश्रम वापस आ गईं। इस समय सूर्य अस्त हो चुका था। उन्हें इस रूप में देखकर महर्षि जमदग्नि ने अपनी योग विद्या से सब जान लिया। वो क्रोधित हो  गए। उन्होंने कहा, “अब तुम्हारा चित्त दूसरे पुरुष में लग गया है। अब तुम मेरी अर्धांगिनी होने का अधिकार खो बैठी हो।”

उन्होंनें कहा, “ब्राह्मण का शरीर कठोर तप और साधना के लिए है। यह शरीर क्षुद्र सांसारिक काम के लिए नहीं है।” इस पर रेणुका ने कहा, “मेरे हृदय में केवल आपकी छवि रहती है। मेरे मन में आपके अलावा किसी अन्य का विचार आता ही नहीं है। मेरे मन में जो था वह मैंने आपको कह दिया है। अब धर्म के अनुसार जो उचित है, आप वह निर्णय करें।”

इस पर महर्षि जमदग्नि ने क्रोधित होकर एक-एक करके अपने चारों अग्रज पुत्रों से रेणुका का वध करने को कहा। लेकिन सभी पुत्रों ने ऐसा करने से मना कर दिया। इसके बाद उन्होंने परशुराम से भी यही बात कही। और उन्होंने अपने अग्रज पुत्रों के द्वारा आदेश की अवज्ञा करने पर उनका भी वध करने के लिए कहा। इस पर परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए बिना किसी विलंब के अपनी माता और चारों भाइयों के सिर काटकर धड़ से अलग कर दिए। इस पर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने परशुराम से वर मांगने को कहा। 

परशुराम ने कहा, “मेरी माता और भाई जीवित हो जाएं और उन्हें मेरे द्वारा उनका वध किए जाने की याद न रहे। उनके सभी मानस पाप नष्ट हो जाएं। मैं लंबी आयु प्राप्त करूं और युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न रहे।”

महर्षि जमदग्नि ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा ऐसा ही होगा। महर्षि ने परशुराम को स्वच्छंद मरण का आशीर्वाद प्रदान किया और उनकी माता और भाईयों को जीवित कर दिया। 

 

क्षत्रियों के विनाश की कथा

कहा जाता है कि परशुराम ने इस धरती को 21 बार क्षत्रियों से मुक्त किया था। एक बार, हैहय वंश के राजा कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि के आश्रम पर आक्रमण किया और उनकी हत्या कर दी। उनके मृत्यु के पश्चात रेणुका भी महर्षि जमदग्नि के साथ सती हो गईं। इस घटना ने परशुराम को हिलाकर रख दिया। क्रोध और प्रतिशोध की आग में जलते हुए, उन्होंने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त करने का संकल्प लिया।

अपने फरसे को धारण कर, परशुराम ने क्षत्रियों का वध करना शुरू कर दिया। क्षत्रियों के रक्त से उन्होंने पांच सरोवर भर दिए। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में यह स्थान समन्तपंचक के नाम से प्रसिद्ध है।

महर्षि ऋचिक परशुराम के दादा थे। वे इस भयानक रक्तपात को देखकर विचलित हो गए। उन्होंने परशुराम को यह रक्तपात बंद करने के लिए कहा। महर्षि ऋचिक के उपदेशों ने परशुराम को प्रभावित किया। उन्होंने क्षमा का मार्ग अपनाया और क्षत्रियों के प्रति अपनी कटुता त्याग दी। उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया और जीती गई पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी।

शस्त्र त्याग कर, भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर चले गए। वहां वो आश्रम बनाकर रहने लगे और आध्यात्मिक ज्ञान में लीन हो गए।

परशुराम से जुड़ी मान्यता

भगवान परशुराम एकमात्र ऐसे विष्णु अवतार हैं, जो आज भी चिरंजीवी रूप में जीवित हैं। वे हिमालय के किसी गोपनीय स्थान पर तपस्या में लीन हैं और ऐसा कहा जाता है कि कलियुग के अंत में भगवान विष्णु के अंतिम अवतार, श्रीकल्कि को वे ही दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्रदान करेंगे।

परशुराम जयंती केवल भगवान परशुराम की स्मृति का दिन नहीं है, बल्कि यह दिन हमें यह भी सिखाता है कि जब अधर्म अपने चरम पर हो, तब कोई भी धर्म की रक्षा हेतु शस्त्र उठा सकता है। यह पर्व धर्म, तप, और पराक्रम की त्रिवेणी है, जो जीवन को दिशा देती है।

आइए, इस परशुराम जयंती पर हम भी संकल्प लें कि हम सत्य के मार्ग पर चलेंगे, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाएंगे, और अपने भीतर के अधर्म का नाश कर आत्मविकास की ओर अग्रसर होंगे।